लुई पाश्चर ( सन् 1822-1895 )



"इच्छा-शक्ति, कार्य और धीरज-ये तीन शब्द शब्दकोश के सबसे अधिक महत्व के शब्द हैं। इन्हीं तीन स्तम्भों पर मैं अपने जीवन का विशाल भवन खड़ा करूँगा।" लुई पाश्चर ने अपने बचपन में ही कहा था।

चमड़े का व्यवसाय करनेवाले एक सुखी परिवार में सन् 1822 में लुई पाश्चर का जन्म हुआ। फ्रांस का जुरा जिला और इस जिले में आरबो नामक गाँव। स्विट्जरलैण्ट के निकट जुरा नामक पहाड़ की तराई में यह गाँव बसा हुआ था। पशुओं के लिए लम्बे-चौड़े चरागाह थे और इसीलिए उसके परिवार का चमड़े का व्यापार खूब चलता था।

किन्तु पिता अपने पुत्र को ऊँची-से-ऊँची और अच्छी-से-अच्छी शिक्षा देना चाहता था। वैसे बचपन में लूई में कोई खास विलक्षणता नहीं दिखायी देती थी।"वह मेरी क्लास का सबसे अधिक शर्मीला और सबसे छोटा लड़का है। उससे मुझे भविष्य में बहुत कम आशाएँ हैं।" उसके अध्यापक ने कहा था, "विद्यार्थी का काम है कि वह केवल प्रश्नों का जवाब दे, न कि स्वयं प्रश्न पूछने लग जाये।"


लुई पाश्चर पेरिस में रसायनशास्त्र पढ़ने गया। देहात के लोग कहने लगे, "विज्ञान की पढ़ाई में समय बरबाद करना फिजूल है।" किन्तु पिता को अपने पुत्र पर पूरा-पूरा भरोसा और विश्वास था, "मुझे विश्वास है कि मेरा लुई जो कुछ भी करेगा, ठीक करेगा।" पेरिस से लुई ने अपने पिता को लिखा था, "आप धीरज धरिए और मुझ पर विश्वास रखिए। मैं धीरे-धीरे उन्नति ही करूंगा।"

पेरिस में रसायनशास्त्र में डॉक्टरेट के लिए तैयारी करते समय उसने प्राइवेट ट्युशन भी स्वीकार कर लिये थे। अनेक बार उसे भूखा रहना पड़ता, दूसरी परेशानियाँ उठानी पड़तीं, फिर भी वह अपने काम में जुटा रहता था।

इसी समय उसने प्रसिद्ध रसायनशास्त्री उमास के लेक्चर सुने। इन लेक्चरों से उसे और भी अधिक प्रोत्साहन मिला। डॉक्टरेट के लिए एक प्रबन्ध की बजाय उसने दो प्रबन्ध तैयार किये। आरवो गाँव में खुशी की लहर दौड़ गयी। पिता ने लुई को लिखा, "तुम्हारे प्रबन्धों को तो हम नहीं समझ सकते, किन्तु तुम्हारे स्वभाव को हम जरूर पहचान सकते हैं। तुमने हमें हमेशा सुख दिया है।"

लुई पाश्चर को 'इकोले नार्मल' में प्रो. लाडरेंट के सहायक के रूप में स्थान मिला और उसने मणिभ-वीक्षण पर प्रयोग भी करने शुरू कर दिये। इसी समय सारबोन विश्वविद्यालय में भौतिकशास्त्र के प्राध्यापक पाउले का ध्यान पाश्चर की ओर गया। उन्होंने स्ट्रासबोर्ग विश्वविद्यालय के नाम पाश्चर को एक प्रशंसापत्र दिया, "पाश्चर एक तरुण प्रतिभाशाली रसायन- शास्त्र के विद्वान् हैं। उन्होंने अभी कुछ प्रयोग समाप्त किये हैं। अगर उन्हें किसी अच्छे विश्वविद्यालय में पढ़ने-पढ़ाने और प्रयोग करने के लिए सुविधा मिले, तो वह महत्त्व का काम कर सकते हैं।"

जनवरी, 1849 में स्ट्रासबोर्ग विश्वविद्यालय में रसायन के प्राध्यापक के रूप में पाश्चर की नियुक्ति हो गयी। विश्वविद्यालय में उनकी प्रथम विजय थी—कुमारी मेरी लाडरेंट के दिल पर विजय प्राप्त कर लेना। वह विश्वविद्यालय के अध्यक्ष (रेक्टर) की लड़की थी। नियुक्ति के कुछ दिन बाद ही पाश्चर ने अध्यक्ष महोदय को पत्र लिखा, "मेरे पिता आरबो में चमड़े का व्यापार करते हैं। मेरी तीन बहनें घर का काम-काज देखती हैं और पिताजी को व्यवसाय में मदद भी करती हैं। पिछली मई में मेरी माँ की मृत्यु हो चुकी है । मेरा परिवार अधिक धनी नहीं है, किन्तु सुखी है। अपने हिस्से की जायदाद अपनी बहनों को दे देने का मैंने निश्चय कर लिया है, अतः मेरे पास अपनी कोई जायदाद नहीं है। मेरे पास यदि कुछ है तो स्वस्थ शरीर, साहस और विश्वविद्यालय में स्थान । मैं अपने जीवन को शोधकार्य में लगाना चाहता हूँ और मुझे सफलता में विश्वास है "अपने जीवन की इन्हीं थोड़ी-बहुत विशेषताओं को सामने रखकर, मैं आपसे आपकी लड़की अपनी पत्नी के रूप में चाहता हूँ।"

पिता ने पुत्री को निर्णय की पूरी छूट दे दी। पुत्री ने पहले तो साफ इन्कार कर दिया, परन्तु पाश्चर इससे निराश नहीं हआ। उसने दूसरा पत्र मेरी की माँ को लिखा, "मेरी पहली मुलकात या भेंट को शायद अधिक महत्त्व देती है। मुझमें ऐसी कोई बात नहीं है कि प्रथम परिचय में ही कोई लड़की मुझ पर मोहित हो जाये। लेकिन जहाँ तक मेरा पिछला अनुभव है, अधिकाधिक मेरे निकट आने पर लोगों ने मुझे अधिक पसन्द किया।" उसने मेरी को भी एक पत्र लिखा, "मैं केवल यही चाहता है कि मुझे पहचान लेने में तुम जल्दबाजी न करो। इसमें तुम्हें गलतफहमी हो सकती है। समय तुम्हें बतायेगा कि इस ऊपर से ठण्डे और संकोची स्वभाव वाले आदमी के भीतर तुम्हारे लिए गहरा प्यार है।"


अन्त में उसे अपने प्रयत्नों में सफलता मिली। 29 मई, 1849 विवाह का दिन निश्चित हुआ। उस रोज गिरजे में अतिथि आ चुके थे, वधू आ चुकी थी, उसके माता-पिता आ चुके थे, पादरी आ चुका था.-'लेकिन वर कहाँ है?'

अपनी प्रयोगशाला को छोड़कर वह और कहाँ होता? उसका परम मित्र चाप्पूइस दौड़ा-दौड़ा उसकी प्रयोगशाला में पहुंचा, जहाँ पर पाश्चर को उसने प्रयोग में तल्लीन देखा।

"क्या तुम अपने विवाह की तारीख भी भूल गये?"
"नहीं।"
"तब तुम यहाँ क्या कर रहे हो?"

"देखते नहीं, मैं अपना काम पूरा कर रहा हूँ। तुम यह तो चाहोगे नहीं कि मैं बीच ही में अपना काम छोड़ दूं।"

पाश्चर का वैवाहिक जीवन पूरी तरह सुखी रहा। यद्यपि उसकी हर समय काम में पिले रहने की आदत' के लिए मेरी कभी-कभी उसे दो-चार बातें सुना देती, परन्तु यह कहकर कि 'मेरे साथ तुम्हारा भी यश फैलेगा। पाश्वर उसे खुश कर देता।

लेकिन एक वैज्ञानिक की पत्नी का जीवन सरल नहीं होता । मेरी को यश के साथ दुःख भी मिला। पाश्चर जैसे तरुण वैज्ञानिक के बहत-से शत्र पैदा हो गये । कम प्रतिभा वाले दूसरे वैज्ञानिक उससे ईर्ष्या करने लगे।

वह रसायनशास्त्र से प्राणिशास्त्र में जाकर परीक्षण करने लगा। अपने मित्र चाप्पइस को उसने लिखा, “जीवन और मृत्यु की पहेली का मैं हल ढूंढ़ना चाहता हूँ और जल्दी ही मैं इस क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण खोज करनेवाला हूँ। मैं 'जीव-उत्पत्ति' जैसे महत्त्वपूर्ण प्रश्न का हल खोज निकालनेवाला

वास्तव में जीव-उत्पत्ति का प्रश्न एक बिकट प्रश्न था। जीव-उत्पत्ति के बारे में लोगों के मन में परम्परा से अन्धविश्वासी मान्यताएँ अपनी जड़ें जमाये बैठी थीं। उन जड़ों को उखाड़ फेंकना कोई आसान काम नहीं था। लेकिन पाश्चर अपने प्रयोगों पर डटा रहा । दूसरे वयोवृद्ध वैज्ञानिक पाश्चर के मुकाबले में उतर आये। उसका सबसे अधिक विरोध दो आदमियों राउएन के 'नेचुरल हिस्ट्री म्यूजियम' के डाइरेक्टर प्रो. पौरवेट और तलुम विश्वविद्यालय में शरीरशास्त्र के प्राध्यापक निकोलस जोली ने किया। इन महानुभावों ने पाश्चर को गलत साबित करने के लिए तथाकथित कुछ प्रयोग किये । पाश्चर ने अपने पिता को लिखा, “पौरवेट और जोली जो भी कहते हों, अन्त में जीत मेरी ही होगी। उन्हें परीक्षण करना नहीं आता। यह कोई सरल कला नहीं है। इसके लिए कुछ प्राकृतिक गुणों के अतिरिक्त, एक लम्वे अनुभव की आवश्यकता होती है।" पाश्चर के विरोधी उसका खुलेआम मजाक करने लगे। पाश्चर को वे 'सर्कस का बहुरूपिया, धोखेबाज और मसखरा' तक कहने लगे थे। पाश्चर इन सबको सहन करता गया । उसने अपनी पत्नी से कहा, "एक वैज्ञानिक को हमेशा यही सोचना चाहिए कि आनेवाली शताब्दियों में संसार उसके बारे में क्या सोनेगा? वर्तमान के अपमान और तिरस्कार की उसे तनिक भी परवाह नहीं करनी चाहिए।"

अन्त में जीव-उत्पत्ति का यह सवाल प्रमुन्य वैज्ञानिकों के एक मण्डल को सौंप दिया गया। एक लम्बे विचार-विमर्श के बाद इन वैज्ञानिकों ने पाश्चर के सिद्धान्त का ही समर्थन किया, "केवल 'जीव' से ही जीव' का निर्माण सम्भव है।"

'जीव-उत्पत्ति' को समझ लेने के बाद पाश्चर 'जीव-सुरक्षा के क्षेत्र में उतरा । फ्रांस के एलाइस प्रान्त में रेशम के कीड़ों में एक विचित्र रोग फैल गया था। फ्रांस का रेशम का समूचा व्यवसाय ठप्प हो गया। इस रोग के खात्मे के लिए पाश्चर को बुलाया गया। पाश्चर का फिर विरोध होने लगा। रोग को समाप्त करने में पाश्चर को जितनी ही अधिक देर लगी, यह विरोध उतना ही अधिक बढ़ता गया। “रोग-निदान के बारे में एक रसायनशास्त्री भला क्या जान सकता है ?" पाश्वर के पास केवल एक ही
उनर था -- उसका अपना धीरज।

और वास्तव में उसे धीरज की बड़ी आवश्यकता थी। जब वह रेशम के कीड़ों के रोग पर परीक्षण कर रहा था, उन्हीं दिनों उसके एक बड़े बच्चे की मृत्यु हुई, फिर दूसरे की और फिर तीसरे की। उसके एक मित्र ने तब कहा था, "ऐसी परिस्थिति में भी तुम अपने परीक्षणों में लगे हुए हो, यह बहुत ही बड़े साहस की बात है।" पाश्चर ने उत्तर दिया, "मैं अपने साहस के बारे में तो नहीं जानता, हाँ, मैं अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से जानता हूँ ।"

हर रोज सुबह के पाँच बजे से लेकर रात के ग्यारह बजे तक पाश्चर अठारह घण्टे काम करता। उसे पक्षाघात ने घेर लिया, फिर भी उसका मस्तिष्क जागरूक था। बीमारी की इन्हीं शान्त घड़ियों में उसे अपनी समस्या का हल मिल गया। 'रेशम के कीड़ों का रोग वंशानुगत होता है, पाश्चर ने निष्कर्ष निकाला कि 'यह रोग एक पीढ़ी के अण्डों से दूसरी पीढ़ी के अण्डों में पहुँचता रहता है। रोगी अण्डों को नष्ट कर दीजिए, आपको रेशम के कीड़ों की स्वस्थ फसल मिलेगी।'

कृषकों ने पाश्चर के इस निष्कर्ष और रोग को दूर करने के तरीके की परीक्षा की। उन्हें अच्छी फसल मिली। एलाइस की जनता ने पापचर की एक प्रतिमा बनाकर उसके प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट की।

उसकी खोजों की उपयोगिता के अनुपात में पाश्चर की उम्र बहुत कम थी ; वैसे उसे अधिक की अपेक्षा भी न थी। उसका मत था, "यदि कोई वैज्ञानिक केवल निजी लाभ के लिए ही काम करता है, तो वह अपने ऊँचे आसन से नीचे गिर जाता है।" शराब से सम्बन्धित उसने जो परीक्षण किये, किसी प्रकार के आर्थिक लाभ की आशा के बिना ही किये। शराब में एक प्रकार का 'खट्टापन' आ जाने के कारण फ्रांस को शराब-व्यवसाय में अत्यधिक नुकसान हुआ। सूक्ष्म परीक्षणों से पाश्चर ने पता लगा लिया कि इस खट्टेपन का कारण शराब में पैदा हुए कीटाणु हैं। अब उसके सामने सवाल था-इन कीटाणुओं को कैसे नष्ट किया जाए ? पहले उसने बहुत-से 'एण्टीसेप्टीन' पदार्थों का उपयोग किया, लेकिन कोई लाभदायक परिणाम नहीं निकला। तब उसने शराब को विभिन्न तापमान तक गरम करना शुरू किया। अन्त में उसे अपनी समस्या का हल मिल ही गया। उसने देखा कि यदि शराब 55 डिग्री सेंटिग्रेड तक गरम की जाये, तो कीटाणु तो मर ही जाते हैं और साथ-ही-साथ शराब के गुणों में भी किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं आता।

आज जिस 'पायचुराइजेशन' प्रणाली की बहुत चर्चा है, उस प्रणाली की यही शुरुआत थी। इस प्रणाली द्वारा जल्दी खराब होनेवाले पेय पदार्थों को-खासकर दूध और दूध से बने पदार्थों को काफी समय तक सुरक्षित रखना अब सम्भव हो गया है।

सन् 1870 में कैसर विलहेल्म प्रथम की सेना ने फ्रांस पर हमला किया। पाश्चर ने अपने देश की सेवा के लिए अपने-आपको पेश किया, परन्तु पक्षाघात का कुछ असर अब भी बाकी था। अतः उसे सेवा में भर्ती नहीं किया गया। जर्मन तानाशाही के प्रति अपनी धूणा प्रदर्शित करने के लिए उसने बोन विश्वविद्यालय से मिली अपनी डॉक्टर की सम्मानित उपाधि लौटा दी। उसने फैकल्टी के अध्यक्ष को लिखा, "यह डिप्लोमा वापस ले लीजिए और विश्वविद्यालय के कागज-पत्रों से मेरा नाम काट दीजिए। इसे आप कैसर विलहेल्म की बर्बरता के प्रति एक फांसीसी वैज्ञानिक का घृणा-प्रर्दशन ही समझिए..." फैकल्टी के अध्यक्ष का उत्तर मिला, "श्रीमान् पाश्चर ! आपने प्रसिया के महान सम्राट् विलहेल्म का अपमान किया है । आपके घृणित नाम को अपने विश्वविद्यालय के कागज-पत्र-संग्रहालय से अलग रखने के लिए हम आपके इस पत्र को भी वापस लौटा रहे हैं।"

पाश्चर का पुत्र भी फ्रांसीसी सेना में भर्ती हो गया था। जनरल बौरबारी, जिसकी टुकड़ी में पाश्चर का पुत्र सिपाही था, हार चुका था। पाश्चर अपनी पत्नी को साथ लेकर पुत्र की खोज में निकल पड़ा। कहीं से भी पता न चला कि सार्जेण्ट पाश्चर जिन्दा है या मर गया। एक ने बताया, "इस टुकड़ी के बारह सौ आदमियों में से केवल तीन सौ आदमी जिन्दा बचे हैं। केवल इतना ही मैं आपको बतला सकता हूँ।"

पाश्चर और उसकी पत्नी घोडागाड़ी में यात्रा कर रहे थे। एक जगह पर उन्होंने कुछ सिपाहियों को आग तापते देखा। "सार्जेण्ट पाश्चर?"

"हाँ, कल हमने उसे देखा है..-वह जिन्दा है किन्तु उसकी हालत बहुत ही खराब है-शेफोइस के रास्ते पर शायद आपको मिल जाये.."

आगे, बर्फ से ढंके इस रास्ते पर एक धोडागाड़ी जा रही थी। गाड़ी के भीतर घास पर कम्बल से ढका हुआ एक सिपाही लेटा हुआ था। अँधेरे में उसे पहचानना मुश्किल था। वृद्ध पाश्चर ने गाड़ीवाले से पूछा, "क्या तुमने सार्जेण्ट पाश्चर को देखा है ?"

सिपाही ने अपना सिर उठाया, "पिताजी! माँ !"

रेशम के कीड़ों और शराब पर परीक्षण करते समय पाश्चर को एक व्यापक सिद्धान्त का पता लगा, “इन सब रोगों का कारण सूक्ष्म जीवाणुओं का होना है । मनुष्य के रोगों पर भी इस सिद्धान्त का क्यों न परीक्षण किया जाये ?" उसने सोचा।

उन दिनों ऑपरेशन के बाद बहुत-से रोगियों की मृत्यु हो जाती थी। किसी को ऑपरेशन-टेबल पर लिटाने का अर्थ ही यह था कि उसे चिता पर लिटाना। पाश्चर ने चिकित्सा अकादमी के सदस्यों को बताया, “खुले घाव पर लाखों-करोड़ों कीटाणु आघात करते हैं। ये कीटाणु हवा में होते हैं, सर्जन के हाथों पर होते हैं, जख्म को धोने और बाँधनेवाले स्पंजों और पट्टियों में होते हैं, ऑपरेशन के औजारों पर होते हैं।"

फ्रेंच अकादमी के सदस्यों ने जब यह बात सुनी, तो उन्होंने पाश्चर का मजाक उड़ाया। लेकिन स्कॉटलैण्ड के एक व्यक्ति को पाश्चर की बात जंची। यह व्यक्ति था- जोजेफ लिस्टर, जो एडिनबरा विश्वविद्यालय में सर्जरी का प्राध्यापक था। लिस्टर ने पाश्चर की सलाह का अनुकरण किया। उसने ऑपरेशन से पहले हाथ, औजार, पट्टियाँ और घाव को कार्बोलिक एसिड से धोया। इसका परिणाम यह हुआ कि दो वर्ष के भीतर ही ऑपरेशन के बाद की मृत्यु-संख्या नब्बे प्रतिशत से पन्द्रह प्रतिशत पर उतर आयी।

फिर भी फ्रेंच अकादमी के सर्जन बहरे बने रहे। “यह एक नया सिद्धान्त था-और कोई भी नया सिद्धान्त इतनी आसानी से स्वीकार नहीं किया जा सकता।" उनका तर्क था।

लेकिन पाश्चर भी अपने सिद्धान्त को मनवाने के लिए डटा हुआ था, "सर्जरी से प्राप्त तथ्यों ने अब यह असन्दिग्ध रूप से सिद्ध कर दिया है कि इन छोटे-छोटे कीटाणुओं के विप के कारण ही बहत-से रोगी मर जाते हैं।"

एक दिन चिकित्सा-अकादमी का एक सदस्य 'प्रसवताप' पर भाषण दे रहा था। इस ताप से सन् 1864 में अकेले पेरिस के एक अस्पताल में 300 औरतों की मृत्यु हुई थी। वक्ता इस ताप के कारणों पर प्रकाश डाल रहा था। "बकवास !" पीछे से एक आवाज उठी, “तुम्हारी बताई हुई बातों में से एक भी बात इसका कारण नहीं है, डॉक्टर और नसें इसके लिए जिम्मेदार हैं । अस्वस्थ शरीर से डॉक्टर और नसें ही स्वस्थ शरीर तक इन कीटाणुओं को ले जाते हैं। माताओं की मृत्यू के लिए यही लोग जिम्मेदार हैं ।"

वक्ता ने व्यंग्य से पूछा, “आपको यह कीटाणु कैसा दीखता है ?"

पाश्चर बोर्ड पर आया और उसने चाक हाथ में लेकर बोर्ड पर एक टेढ़ी-मेढ़ी आकृति खींच दी, "ऐसा दिखायी देता है।"

मीटिंग में खलबली मच गई। बुजुर्ग डॉक्टरों ने पाश्चर को गालियाँ दीं। परन्तु तरुण व्यक्तियों ने पाश्चर की बात को समझा। धीरे-धीरे उन्होंने पाश्चर के सुझावों का अनुकरण किया।

पाश्चर ने बाद में एक और भी व्यापक सिद्धान्त खोज निकाला-विकट रोग का उसी रोग की कम मात्रा द्वारा इलाज-विषस्य 'विषमौषधम्', अर्थात् जहर को जहर मारता है।

इस सिद्धान्त का भी जबरदस्त विरोध हुआ। चिकित्सा अकादमी की एक मीटिंग में पाश्चर ने अपने विरोधियों को खूब मुर्ख बनाया। जुले ग्यूरीन नामक एक डॉक्टर अपनी कुर्सी से उठकर पाश्चर की ओर बढ़ा, परन्तु लोगों ने उसे बीच में ही रोक दिया । दूसरे दिन ग्यूरीन ने पाश्चर को 'ड्युअल' के लिए चुनौती दी। लेकिन पाश्चर ने इन्कार कर दिया, “मेरा काम लोगों को जीवन देना है, उन्हें मारना नहीं !"

और तब आयी उसके जीवन की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना-'हाइड्रोफोबिया का इलाज'–पागल कुत्ते द्वारा काटे हए आदमी का इलाज । पाश्चर ने पागल कुत्ते की लार पर परीक्षण करके इलाज के लिए इंजेक्शन तैयार किए।

कुछ दिनों बाद उसके पास जोजेफ माइस्टेर नामक एक लहका आया। जोजफ को पागल कुत्ते ने काट खाया था। बस, अब क्या था ! पाश्चर को अपने परीक्षणों को सिद्ध करने का मौका मिल गया। लेकिन यह एक जिम्मेदारी का काम था। सफलता न मिली तो? लेकिन पाश्चर को सफलता मिली-हाइड्रोफोबिया पर उसने विजय पायी।

पाश्चर को देश-विदेशों से सम्मान और उपाधियाँ मिलीं। लन्दन में हए अन्तर्राष्ट्रीय चिकित्सा-सम्मेलन में फांस की सरकार ने पाश्चर को फ्रांस का प्रतिनिधि बनाकर भेजा।

पाश्चर के सम्मान में 'पाश्चर इंस्टीट्यूट' की स्थापना की गयी। उसने इस इंस्टीट्यूट में अपने परीक्षण जारी रखे । पाश्चर के सत्तरवें जन्मदिवस पर देशभर में छुट्टी मनायी गयी। सारबोन विश्वविद्यालय ने उसके सम्मान में एक समारोह किया। वह स्वयं अपने भाषण को नहीं पढ़ सका। उसका भाषण उसके पुत्र ने पढ़ा :

"महानुभावो! आपके इस सम्मान से मुझे बेहद सुख मिला। मेरा यह पक्का विश्वास है कि अन्त में अज्ञान और कलह पर विज्ञान और शान्ति की विजय होगी। कुछ क्षणों की दुखद परिस्थितियों से अपने को हतोत्साहित
न होने दीजिए-भविष्य की प्रगति में विश्वास रखिए।"

पाश्चर का संसार को यह अन्तिम सन्देश था।

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